Sunday, September 26, 2010

काश्मीर के नौजवानों...

काश्मीर घाटी के नौजवानों आज मैं तुम से मुखातिब हूँ..

हाँ, अब तुम को आजादी चाहिए
बड़े हो गए हो तुम अब
कभी जिन पत्थरों से तुम बचपन मैं खेलते थे
आज उनको दूसरों पर फेकने की सामर्थ्य आ गयी है तुमको
कहाँ से आई ये ताकत, ये हिम्मत
उसी माँ के दूध को पी कर पिछले साठ सालो में तुम बड़े हुए हो
जिन पर तुम आज ये पत्थर उछाल रहे हो.
उसी माँ ने तुमको बड़ा किया, बचाया आतंकियों से, पडोसी लुटेरों से
कारगिल के वक्त तुम किधर छुप कर बैठे थे जब ये माँ गोलियाँ खा रही थी
कभी इस माँ ने डाट दिया, खाने में नमक ज्यादा डाल दिया तो
पत्थर फेकने लगे, आज तुम आज़ादी की बात कर रहे हो,
कब बंधन मैं थे तुम, पल दो पल माँ ने आँचल से तुम्हे ढँक दिया तो
तो तुम आज़ादी की बात करने लगे, माँ का आँचल जला दिया
आज तुमको उस आँचल से सांस लेने मैं तकलीफ होने लगी

तुमने कभी सोचा है जिस जमीं से संतूर की आवाज आती थी
अब वहाँ से पत्थरों के टकराने की आवाज क्यों आने लगी
कभी जहाँ की सुबह ओस की धुंध में डूबी रहती थी
वहाँ की शाम कब घर जलने के आग के धुए मैं घिर गयी
कभी तुमने सोचा की तुम्हारे जमीं के फूल कब जंगली हो गए

तुम्हारी घाटी के सेव के लाल रंग ऐसे नहीं हुए हैं
सालों हमने खून से सींचा है उस जमीं को तब उनको ये रंग आया है
और आज इन पर पत्थर उछालते हुए तुम्हारे हाथ नहीं काँप रहे हैं
इन घावों के लिए पीड़ा हमको भी है, हमारे खून मैं भी गुस्सा है,
लड़ना भी आता है हमको कविता लिखने के सिवा

© Rakesh Kumar Sept. 2010

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