जब भी मैं इस शहर के रास्तों से गुजरा
मेरे जेब के बटुए से हर बार क्रेडिट कार्ड निकला
इस रंग भरे बाजार से अक्सर चीजें खरीदता रहा था मैं
लेकिन कभी कोई चीज जरुरत के मुताबिक न निकला
हरे भरे बागीचों का मेला था जिस जगह
उस जगह आज पथरीली इमारतों का टीला निकला
जिस आशियाने की तलाश में मैं भटका दिन रात
उसकी कीमत हर बार मेरे पहुँच से बाहर निकला
दिन रात ऑफिस मे बिता कर भी न उबर पाया जिस से मैं
वो एक अदद होम लोन EMI का टुकड़ा निकला
कहने के लिए उससे शब्द तो फिर भी थे बहुत मेरे पास
बस उस वक़्त ही मेरे मोबाइल का battery discharge निकला
चाहता तो मैं भी उन मंजिलों तक पहुँच सकता था
बदनसीब मैं था की मेरे कार मैं पेट्रोल कम निकला
गया तो था मैं भी उससे अपनी मुह्बबत का इजहार करने
बस उसके बाप के डर से उसके दरवाजे की घंटी बजा कर भाग निकला
जिंदगी भर जिसके सुन्दरता पर मैं कवितायेँ लिखता रहा
आज जब गौर से देखा तो वो beauty parlor जाने का नतीजा निकला
घर बनाने की चाह मैं मैने भी खड़ी की थी चार दीवारे
बस उस से बाहर जाने का रास्ता नहीं निकला
खाने तो मैं भी गया था कई बार महंगे रेस्तौरांत में
पर माँ के हाथ की बनाई रोटी का स्वाद सबसे बेहतर निकला
ऐसा तो नहीं की लोगों ने थामा ही नहीं मेरा हाथ प्यार से
कसूरवार था मैं जो ये दिल पत्थर का निकला
जिसके साथ मैं कभी चला नहीं था दो कदम भी
वही एक दिन ही मेरी जिंदगी का सच्चा हमसफ़र निकला
चाहता था की मैं भी अपनी बीवी के खाने की तारीफ करूँ
लेकीन कम्बखत हर बार उसके बनाये खाने में नमक कम निकला
नशे में तो सभी जिंदगी मैं झूमते हैं हर वक़्त
बस दुनिया की नजरों में मैं ही केवल शराबी निकला
जिन्दगी की दौड़ मैं थक कर कई बार सोचा की बैठ जाऊं
लेकिन क्या करूँ हर बार एक नयी उम्मीद का सिलसिला चल निकला
सारी जिंदगी अपने आप को ही खोजने मैं लगा रहा था मैं
फिर भी जो मेरे अंदर था वो कभी बाहर ही नहीं निकला
इस कदर जिंदगी उलझ गयी है अब जीने में 'राकेश'
जब भी कुछ लिखने बैठा तो केवल मेरी कलम से बकवास निकला
एक बार इस दुनिया ने भी उठाया था मुझे कन्धों पर
गौर से देखा तो वो ही मेरा आखिरी सफ़र निकला
(C) Rakesh Kumar Dec. 2012