Thursday, September 23, 2010

तुम नहीं समझ पाओगे...

इस रचना के लिए मैं जयेन्द्र का आभारी हूँ और ये उसी को समर्पित करता हूँ. धन्यवाद जयेन्द्र..

लिख रहा हूँ कुछ पंक्तियाँ हर बार की तरह
तुम इसे भी नहीं पढ़ पाओगे मेरे प्यार की तरह

दिल के अरमान आज भी बेताब है पहले की तरह
मगर बरसों से लब खामोश हैं गुनाहगार की तरह

तुम्हारी खोज में खुद को समझने लगा हूँ खुदा की तरह
पैर के छाले भी ठंडक दे रहे हैं बर्फ के गोले की तरह

जिंदगी भी मेरी बन गयी है एक वेब पेज की तरह
हर हाइपरलिंक ले जा रहा है तुम्हारी तस्वीर की तरफ

क्यों जा के निकालूं अपने हलक का ये ज़हर
आदत हो गयी मुझ अब जीने की नीलकंठ की तरह

तुम्हारे दिए दिल के ज़ख्म आज भी हरे है बरसों पहले की तरह
कर्ज़दार हूँ इनका जो जीने की वजह बन गए हैं ये मेरे साँसों की तरह

हम तो हवाओं में बिखरे थे खुशबू की तरह
मुठी मैं कैद करने की कोशिस की तुमने एक जुगनू की तरह

खड़ा हूँ आज भी उस मोड पर मूर्ति की तरह
छोडा था जिस जगह हाथ मेरा तुमने एक अनजान की तरह

तुम्हारे लिए था मैं एक पुरानी किताब के एक पन्ने की तरह
साथ पावोगे आज भी तुम मुझे अपने परछाई की तरह

तुम्हारी प्यास बुझाने के लिए हम ठहरे रहे झील के पानी की तरह
चाहता तो मैं भी आकाश छू सकता था समुन्दर की लहरों की तरह

हर शाम तुम्हारी याद को भुलाया है हमने कुछ इस तरह
अपने आंशू भरे प्याले को पिया है हमने जाम की तरह

तुम तो मंदिर में आये थे एक खरीदार की तरह
खुद को सौंप डाला था हमने मगर भगवान के प्रसाद की तरह

दूर है किनारा अकेले चल पड़ा हूँ मैं मौजो की तरफ
मेरा हाल जानने के लिए आना होगा अब तुमको दरिया की तरफ


© Rakesh Kumar Sept. 2010

1 comment:

Jay said...

Amazing creation.

Humne to dil de kar bas yu hi kar lee thee koshish badal ki tarah,
par tumne hamse barsaat karwali hawaon ki tarah.

Wah wah