रात भर घर के बाहर बारिश का काफी शोर था
बेचैन था सो नहीं पाया
मन के भीतर भी काफी था
कहीं न कहीं कुछ उबल रहा है आजकल
किचन में गैस पर बनती हुई चाय
और टेलीविज़न देखते हुए मेरा मन
ज़िन्दगी से गिला बस इतना है मुझे
पोंछ पोंछ कर थक गया
पर अभी थक गीला मन सूखा नहीं
आज भी उन्ही रास्तों से गुजरता हूँ चुपचाप
जहाँ पर मेरे पैरों से ठोकर लगे हुए पत्थर आज मंदिर में विराजमान हैं
अब सर झुका कर अब ध्यान से चलता हूँ मैं
सपनों के टूटने की आवाज नहीं होती
वरना पता चलते ही सेलो टेप से चिपका लेते उनको
कुछ दिन और चल जाते शायद
मन का जंगलीपन अभी गया नहीं
हर वक़्त भटकता रहता है
कम्बख़त थकता भी कभी नहीं है
© Rakesh Kumar Aug. 2016
बेचैन था सो नहीं पाया
मन के भीतर भी काफी था
कहीं न कहीं कुछ उबल रहा है आजकल
किचन में गैस पर बनती हुई चाय
और टेलीविज़न देखते हुए मेरा मन
ज़िन्दगी से गिला बस इतना है मुझे
पोंछ पोंछ कर थक गया
पर अभी थक गीला मन सूखा नहीं
आज भी उन्ही रास्तों से गुजरता हूँ चुपचाप
जहाँ पर मेरे पैरों से ठोकर लगे हुए पत्थर आज मंदिर में विराजमान हैं
अब सर झुका कर अब ध्यान से चलता हूँ मैं
वरना पता चलते ही सेलो टेप से चिपका लेते उनको
कुछ दिन और चल जाते शायद
मन का जंगलीपन अभी गया नहीं
हर वक़्त भटकता रहता है
कम्बख़त थकता भी कभी नहीं है
© Rakesh Kumar Aug. 2016
No comments:
Post a Comment