Monday, October 31, 2011

मेरे शहर में अब...

मेरे शहर में अब...
मैं, तुम तो बहुत हो गये हैं पर हम नहीं है अब
गाड़ियाँ तो अब बहुत हो गयी है पर मंजिलों की दूरियां बढ़ गयी हैं
अब पक्के मकान तो बहुत बन गए है पर घर कमजोर हो गए हैं
लोगों को अब बहुत चीजों की जानकारी हो गयी है पर उनमे खाम्मोशी अब ज्यादा है
 
मेरे शहर में अब...
बिजली की रौशनी तो हो गयी है पर दिलों में अँधेरा बढ़ गया है
नौजवान तो बहुत हैं अब पर जवानी अभी से थक चुकी है
इश्क तो बहुत होते है पर प्रेम कहनियाँ अब सुनने में नहीं आती हैं
घर तो ऊँचे हो गए हैं पर पैर जमीन से दूर हो गए हैं
बच्चे अब स्वतन्त्र हो गए हैं पर अपने पुराने रिश्तों से भी आजाद हो गए है

मेरे शहर में अब...
रेस्तौरांत तो बहुत हैं आजकल पर लोग सड़कों पर अब ज्यादा भीख मांगते हुए दीखते हैं
कपडे तो अब बहुत तरह के मिलते हैं पर तन पूरा ढकने के लिए वो अब भी कम ही हैं
पेड़ों पर फल तो आज भी लगते हैं पर अब बच्चों में पत्थर फेकने का साहस नहीं है
गंगा नदी और भी चौड़ी होकर बहने लगी है पर उसका पानी अब कम हो गया है
शाम को सडको पर भीड़ तो होती है पर खेल के मैदान सुने हो गए हैं अब

मेरे शहर में अब...
पढ़े लिखे लोग तो बहुत हो गए हैं पर संस्कार्रों की कमी हो गयी है
लोग अमीर तो अब बहुत हो गए हैं पर देने के लिए अब  कुछ भी नहीं है
खाने की अब कमी तो नहीं रही पर लोग कमजोर और बीमार हो गए हैं
शहर तो बहुत बढ़ गया है पर गलियाँ संकरी हो गयी हैं
टूथ पेस्ट तो हर ब्रांड का मिल जाता है पर नीम के पेड़ नहीं मिलते है अब

बहुत कुछ और भी बदल गया है मेरे शहर में
लेकिन माँ आज भी वैसी ही हैं
इसलिए आज भी मुझे पहले जैसा ही लगता है मेरा शहर...

(C) Rakesh Kumar Oct. 2011

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