Sunday, December 25, 2011

अब मैं खुद को भी भूल जाना चाहता हूँ

अब मैं खुद को भी भूल जाना चाहता हूँ
अजनबी है ये शहर और अनजानी है मेरी डगर
अब मैं अपने आप को लौट जाना चाहता हूँ
हैं सभी व्यस्त और खुद से बेखबर
सभी तरफ दिखती हैं मुझको अनजानी नजर
है नहीं वो नाम जिसको मैं पुकारना चाहता हूँ
अब मैं खुद को भी भूल जाना चाहता हूँ


मंजिलो की तलाश मैं भटकता ही रहा हूँ
नहीं है वो मजिल जो मुझे अपना कहे
सपनो के छलावे मैं कोई कब तक रहे
पैर के छालों को भी ये विश्वास कब तक रहे
अब मैं बैठ कर सुस्ताना चाहता हूँ
अब मैं खुद को भी भूल जाना चाहता हूँ


खंजर थे उन हाथों मैं जिन को पकड़ कर मैं चला  
दर्द थी उन मुस्कानों मैं जिनको मैंने चखा
अनजान थी वो साँसों जिनको मैंने जिया
जल उठा था उन आंशुओं से जिनको मैंने छुवा
अब मैं भावनाओं से परे हो जाना चाहता हूँ
अब मैं खुद को भी भूल जाना चाहता हूँ


ये जीवन रहा है हर वक़्त निन्दित और उपेछित
क्या शिकायत करूँ जब हो रहा खुद से ही पीड़ित
हर पल एक नयी कमी का एहसास होता रहा है
अपने हाथों से खुद की चिता सजाता रहा हूँ
अब मैं स्वयं से भी दूर जाना चाहता हूँ
अब मैं खुद को भी भूल जाना चाहता हूँ


मैं नहीं हूँ वो जो यहाँ बन कर खड़ा 
वक़्त का पहिया कब है किस के लिए रुका 
भूत का परिणाम हूँ या भविष्य का एक नाम हूँ 
अब मैं खुद को एक नया अंजाम देना चाहता हूँ 
अब मैं खुद को भी भूल जाना चाहता हूँ

(C) Rakesh Kumar Dec. 2011.

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