Saturday, September 13, 2014

जी रहा हूँ किश्तों में...

ज़िन्दगी का क़र्ज़ अदा कर रहा हूँ किश्तों में
जी रहा हूँ बाँट कर मैं खुद को कई रिश्तों में

अब भी ज़िंदा रहने का कुछ तो एहसान उतारना बाकी है
याद रखता हूँ हर पल मैं इनको अपनी फ़ितरतों में

क्या हिसाब रखता की ज़िन्दगी में क्या खोया और क्या पाया
जब खुद को ही गवा चूका हूँ मैं गुजरे हुए रास्तों में

तमाम उम्र भटकता ही रहा सपनो की खोज में
एहसास हुआ अब जब टकराया हूँ मैं हकीकतों से

जिंदगी बीत गयी खुदी में खुद को खोजते हुए
क्या उम्मीद रखूं की अब क्या मिलेगा मुझे फरिश्तों से

जिन्दा रहने का एह्साह तो चंद आती जाती सांसें ही थी
वरना जिंदगी तो गुजर गयी थी बस कुछ ही लम्हों की गस्तों में

आ गया था तो दुनिया में चंद लम्हे गुजार कर ही जा रहा हूँ
दुनिया वालों वरना क्या रखा था तुम्हारे गुलिस्तों में

(C) Rakesh Kumar Sept. 2014

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