Sunday, July 25, 2010

जो लोग सागर किनारे चल रहे हैं
वो भी डूबते सूरज के पास जाना चाहते हैं...
जिन पथरों को तुम कुचल रहे हो
उनमे भी देवता बने की चाह है...
वो बरसात की बुँदे भी मोती बन सकती थी
अगर सीप के अंदर जाती...
सुन कर देखना, उस आवाज में भी दर्द होता है
जो पतझड़ के सूखे पत्तों पर तुम्हारे चलने से होती है
आज जिन ताजमहल के चिकने पत्थरों को देख कर तुम खुश हो रहे हो
कभी उन को तराशने वालों हाथों के खुरदरेपन, दर्द को कभी महशुस किया है
पुरखों के पदचिन्ह पर चलने की आदत तो है
पर कभी हस्तचिन्हों को देखकर चलने की भी कोशिश की है
इतिहास को पढने की आदत तो है पर
कभी उन तारीखों को भी याद रखने की कोशिश की है
उडने के लिए पंख तो सभी को मिल जायेंगे
पर आसमान सभी परिंदों को नहीं हासिल हुआ है
ऊँचे सपने देखने की चाह तो है पर 
अपने पैरों के आगे की जमीन को भूल गये हो  
आईने को देख कर डरते हो लेकिन मेरे दास्ताँ सुनने की उम्मीद रखते हो
समुन्दर के खारेपन का एहसास तो है लेकिन अपने आंसुओं का स्वाद भूल गए हो...

No comments: