Sunday, August 15, 2010

बुढा होता देश....

कैसे कह दूँ आज की अब ये देश मेरा है
लडखडाता, गिरता हुआ चलता हुआ ये
जगह जगह इस के शरीर पर पड़ी झुर्रियां
इस के शरीर पर जगह जगह घावों के निशान
बूढ़े हो चले इसके शरीर पर उन घावों से निकालता खून
भिनभिनाती, निचोटती, काटती मक्खिया इसे
कैसे अपना लूँ मैं इसे, कैसे प्यार करूँ मैं इसे
कहाँ गया मेरे सपनो का देश, मेरे बचपन का देश
कहाँ है उस खुशहाल देश का सपना
इस के बेकार हो चुके अंग, कैसे चल पायेगा ये
इस के माथे पर कश्मीर का न सूखने वाला घाव
मुझे तो ये भगवान कृष्ण ॰दारा अशवथामा को दिया गया अभिशाप लगता है
इसके शरीर पर माओवादियों के दिए जा रहे खारोशें
इस के धमनियों मैं बहता भ्रष्टाचार से दूषित खून
और आतंकवादियों के हाथों दिए जाने वाले समय, समय पर
बिजली के झटके कब तक सहन कर पायेगा ये
इसके अंदर अलगाववादियों, धर्म का फैलता कैंसर
घृणा से सिकुड़ती इसकी आँखों की पुतँलिया
राजनेताओं ॰दारा इस के दिल मैं किया जाने वाला सुराख़
कितने दिन बचेगा ये हार्ट अटेक से
इसके अंगों मैं फैला गरीबी का कुष्ठ रोग क्या कभी इसे छोडेगा
लालच और आधुनिकता के दौड मे हर दिन इसका बलातकार करते हम लोग
पड़ोस के भेडिये इसके खून के प्यासे, कैसे बचायेगा ये अपने आप को
दिन, दिन खाँसता कमजोर होती, टुटती साँसें इसकी
कैसे देश बुढा हो गया, युवा हुए बिना ही...

कैसे इस हाल में इसे मैँ छोड़ दू, मैं भी तो इसका ही एक अंग हुँ,
मै भी जिमेमदार हुँ इसके इस हाल का, लेता हँ प्रण इसके इलाज का
मै आज आखिरी साँस के चलने तक....

(c) Rakesh Kumar aug 2010

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